Sunday 14 July 2013

अनजान से लोग..


जिस दुनिया में हम रहते, है कुछ अधूरी,
कब कहाँ खो जाये किसी को खबर नहीं।

सब कुछ ख़त्म कर डाला बाकि क्या बचा,
हर मन में पाप,लालच लूट का कारण बना।

खुद बनाई दुनिया अपना बस नहीं चलता,
हर किसी को दूसरा अपना दुश्मन दिखता।

अंत आता देखकर भी सब बने हैं अनजान,
अपनी धरती पर हर शख्स हो गया मेहमान।

अपनी दुनिया तो अब हमसे संभल न रही,
नयी दुनिया खोजने में पूरी ताकत झोंक दी।

खुद के हाथों सब कुछ हमने दिया बिगाड़,
मिली थी जो जन्नत मिल सबने दी उजाड़।

अपनी ही धरती के हम कैसे शत्रु हो गए हैं,
स्वर्ग पाने की चाहत में इसे नर्क कर गए हैं।


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