Thursday 30 May 2013

पैसे की तृष्णा..

रोज सोचती हूँ क्या करना है इतना पैसा?
क्या राजा बन  अहंकार हमें जाताना है??
                       
क्यूँ अंधे पैसे की होड़ में आगे बढ़ते जाना है?
क्या रोज हमें सोने से बनी रोटियाँ खाना है??

क्यूँ पैसे की तृष्णा मन की हवस बन रही है?
क्यूँ जीवन में हरदम इतनी कलह् बढ़ रही है??

पैसे को भगवान् समझ कर लोग टूट पड़े हैं।
जीवन की आपाधापी में रिश्ते पीछे छूट रहे हैं।।

पैसे से कभी कोई सुख खरीद सका है मानव?
पैसे ने खड़े किर दिये हैं रोज नित नए दानव।।
                       
पैसा एक दुशशक्ति है, न संगी है न साथी है।
इसके मोहपाश में बंधकर चल जाती लाठी है।।

पैसे का मोह न कर ऐ बन्दे चंचल कहाँ टिकता है।
इस जेब से उस जेब, दिन भर पड़ा भटकता है ।।

पैसा भी आज तक क्या किसी का सगा हुआ है?
राजा हो या रंक इसने तो सबको ठगा हुआ है।।

कभी कही ना जायेगा क्या ऐसा कोई दावा है?
तेरा बनकर साथ रहेगा इसने किया वादा है??

2 comments:

  1. बहुत ही सुन्दर कृति है रश्मिजी ,मन की व्यथा का सजीव चित्रण,ऐसे ही लिखती रहिये ,शुभकामनाएं

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  2. Very nice. A true depiction of what money brings to us yet we all follow the "Monetary Devil", blind folded.

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